Saturday, August 23, 2014

क्या सही है , क्यों सही है ??? ( भाग-4 )

एक तूफ़ान जो गुजरा मेरे जिस्म पर से
मेरी मासूमियत उड़ा ले गया
मौत से भी खौफनाक
ज़िन्दगी छोड़ गया
जिनकी बाँहों में खेली-कूदी
उनकी निगाहों में गलीज़ हो गई
बाप के कंधे झुक गए
माँ की आँखों में पानी भर गया
भाई कहीं कमजोर हो गया
सखी सहेलियाँ ,सारी गलबहियाँ
अजनबी हो गई.
फुसफुसाहट अपनी हो गई
खिलखिलाहट  पराई हो गई
खिड़की जो खोली थी
सूरज ने रोशनी की
अमावस की काली रात हो गई
  उफ़ !
मैं औरत
औरत  न रहकर 
 जिस्म हो गई
बलात्कार झेला हुआ एक नाम हो गई
बदन का पानी तेजाब बन
जलाने लगा खुद को
पड़ोसियों की कानाफूसी
पीड़ा का पेड़ हो गई
यारब ! ये क्या हो गया
कल का फूल
आज काँटा हो गया
होठों  की हँसी
आँखों की बरसात हो गई
ज़माने में दिखाने को
मेरा दर्द अपना हो गया
और झेलने को
पराया हो गया
औरत होने की पीड़ा
मेरा  नसीब हो गई
माँ - बहन की कोख इज्जत हो गई
और मेरी कोख गरम गोश्त हो गई
रौंदी मैं गई
और उफ़ !
उफ़!!
 गुनाहगार भी
मैं ही हो गई   !!

सुबोध- २४ अगस्त,२०१४

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