Friday, April 17, 2015

38 . ज़िंदगी – एक नज़रिया


मुझे याद है बचपन में मैं खुद के बनाये हुए मिटटी के घरोंदे मन भर जाने पर या खेल ख़त्म होने पर बड़ी सहजता और बिना किसी तकलीफ या दर्द के एहसास के तोड़ दिया करता था , आज उतनी सहजता के कुछ भी नहीं कर पाता, यहाँ तक कि खाना खाते वक्त भी ध्यान रखता हूँ मुंह ज्यादा नहीं खोलना है ,कौर छोटे रखने है ,धीरे-धीरे चबा-चबा कर खाना है जबकि बचपन में बड़ा सा कौर मुंह में ठूंस कर भाग जाया करता था दोस्तों के साथ खेलने को ,बिना किसी बड़े की टोका-टाकी की परवाह किये.
बड़े होने की कीमत हमने सहजता खोकर चुकाई है !!
चेहरे पर ओढ़ी हुई झूठी मुस्कान कभी-कभी बड़ी चुभती है -बचपन में जब किसी से नाराज़ होते थे खुलेआम उससे कुट्टी करते थे लेकिन आज ?
आज तो खुल कर रो भी नहीं पाते !!
और न ही खिलखिलाकर हंस पाते है !!
काश वो बचपन की मासूमियत ,वो सहजता ,वो खिलन्दड़ापन , वो मस्तियाँ, वो बेफिक्री , वो बेशर्मी ,वो निश्छलता , वो अपनापन और वो बेगानापन (जो भी था खुलेआम था ) वापिस जी पाते ,वापिस हासिल कर पाते !!
मैं आज मेरी कॉलोनी के बच्चे देखता हूँ और अपने बचपन से उनके बचपन की तुलना करता हूँ तो एहसास होता है माताएं बच्चे नहीं जनती वे बड़े ही जनती है -तमीज और तहजीब के पुतले .
न जाने इनकी सहजता कहाँ खो गई है ?
माँ-बाप द्वारा लादा गया करियर का बोझ उन्हें पैदा होने के साथ ही बड़ा बना देता है . टी.व्ही . ,वीडियो गेम्स,लैपटॉप और स्मार्टफोन से लदा हुआ इनका बचपन क्या हमारे बचपन से अलहदा नहीं ?
बचपन नाम का एहसास क्या इस पीढ़ी में भी वैसा ही है जैसा हममे हुआ करता था !!
या शायद उनका बचपन भी डिजिटल हो गया है ?
सुबोध- अप्रैल ९,२०१५

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